वर्णानामर्थसङ्घानाम् . . . ( 1 )

वर्णानामर्थसङ्घानाम् रसानाम् छन्दसामपि ।
मङ्गलानाम् च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ ।। १ ।।

शब्दार्थ:
वर्णानामर्थसङ्घानाम् (वर्णानाम्-अर्थ-सङ्घानाम्) — अक्षरों और अर्थसमूहों के
रसानाम् — रसों के
छन्दसामपि (छन्द-साम्-अपि) — छन्दों के भी

मङ्गलाचरण

ग्रन्थ के निर्विघ्न समाप्ति और मङ्गलकारी होने के लिये मङ्गलाचरण किया जाता है । आदि, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करना अति कल्याणकारी है । पातञ्जल महाभाष्य सूत्र भू वा दयो धातव: । अष्टाध्यायी सूत्र मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि हि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि च भवन्त्यायुष्मत् पुरुषाणि चाऽध्येतारश्च मङ्गलयुक्ता यथा स्युरिति ॥ अर्थात जिन शास्त्रों के आदि-मध्य-अन्त में मङ्गलाचरण किया जाता है वे सुप्रसिद्ध होते हैं अर्थात निर्विघ्न समाप्त होते हैं तथा उसका अध्ययन करने वाले (अर्थात वक्ता श्रोता) आयुष्मान वीर और मङ्गलकल्याणयुक्त होते हैं ।
‘मध्य’ का अर्थ यहाँ बिलकुल ठीक बीचोंबीच नहीं हैं; वरंच आदि और अन्त के बीच में कहीं ऐसा अर्थ समझना चाहिये । दो – एक टीककारों ने इस प्रसङ्गपर प्रमाणरूप में निम्न श्लोक दिया है और महात्माओं ने भी इसे अपनाया है । श्लोक यथा आदिमध्यावसानेषु यस्य ग्रंथस्य मङ्गलम् । तत्पठनम् पाठनाद्वापि दीर्घायुधार्मिको भवेत् ॥ परन्तु यह उद्धरण किस ग्रन्थ से लिया गया है इसका उल्लेख किसीने नहीं किया और यह श्लोक अशुद्ध भी है । पर यदि किसी ऋषिप्रणीत ग्रन्थ में हो तो माननीय ही है ।
“तर्कसङ्ग्रहदीपिका” में मङ्गल के विषय में यह प्रश्न उठाया गया है कि ‘मङ्गल करना चाहिये इसका प्रमाण क्या है ?’ और इसके उत्तर में यह बताया गया कि एक तो शिष्टाचार [अर्थात वेदोक्ततत्वज्ञानपुर्वक वेदविहित करनेवाले शिष्टपुरुष ऐसा आचरण करते चले आये हैं ।] दूसरे ‘समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्’ ऐसी श्रुति है ।
उसी ग्रन्थ में यह भी शङ्का की गयी है कि ‘मङ्गलाचरण करने पर ग्रन्थ की अवश्य निर्विघ्न समाप्ति होति है और मङ्गल न करने पर समाप्ति नहीं होती ऐसा नियम नहीं कहा जा सकता । क्योंकि अनुभव ऐसा है कि मङ्गल होने पर भी कादम्बरी आदि ग्रन्थ समाप्त नहीं हुए तथा मङ्गलाचरण न होनेपर भी किरणावली आदि ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हुए हैं ?’ और इसका समाधान यह किया गया है कि

  • कादम्बरी आदि ग्रन्थों की समाप्ति न होनेका कारण यह भी हो सकता है कि मङ्गलाचरणों की अपेक्षा विघ्नकारक प्रारब्ध अधिक था ।
  • किरणावली आदि के सम्बन्धमें यह ह् सकता है कि प्रथम मङ्गलकारक भगवतस्मरणादि करके ग्रन्थारम्भ किया हो । परन्तु उस मङ्गलस्मरणका उल्लेख ग्रन्थारम्भमें नहीं किया । ग्रन्थ निर्विघ्न समाप्त हुआ इसीसे ऐसा अनुमान होता है ।
वस्तुतः यह नियम भी तो नहीं है कि प्रत्येक ग्रन्थकारका विघ्नकारक कम होना ही चाहिये । जिसका विघ्नकारक प्रारब्ध नहीं है उसका ग्रन्थ मङ्गल न होनेपर भी निर्विघ्न समाप्त हो सकता है । इसीसे तो नास्तिकों के ग्रन्थ मङ्गल न होनेपर भी समाप्त होते देखे जाते हैं । बाधक प्रारब्ध सर्वसाधारण लोग नहीं जानते इसलिये ग्रन्थारम्भ के समय यथासम्भव सबको ही मङ्गलाचरण करना चाहिये । यदि बाधक प्रारब्ध हुआ तो इससे निवृत्त हो ही जायेगा और यदि न हुआ तो मङ्गलाचरण करने से कोई हानि नहीं है । इसीसे तो प्राचीन महात्माओंने अपने-अपने ग्रन्थों में मङ्गलाचरण किया है जिससे इसे देखकर आगे भी लोग इसका अनुकरण करें ।
श्रीमद्गोस्वामिजीने भी इसी सिद्धान्तानुसार प्रत्येक काण्डके आदिमें नमस्कारात्मक एवं वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण किया है । यों तो गोस्वामीजीने समस्त रामचरितमानसमें अपनी अनुपम प्रतिभा दिखायी है और उसे अनेकों रसों से अलङ्कृतकर भक्ति कूट कूटकर उसमें भर ही दी है । उसी पूज्य रामायणके मङ्गलाचरणमें आप्ने जिन उतकृष्ट भावों क निर्देश किया है जिस भक्तिभावक परिचय दिया है और जिस मङ्गलकार्य की काम्न की है वे सब बातें सहज ही मनको आकर्षित किये लेती हैं । आपने मङ्गलाचरणको अनुष्टप छन्दमें देकर अपने हृदयकी अनुपम भक्तिको छहरा दिया है ।